भगत सिंह ने कहा था,
यदि बहरों को सुनाना है तो आवाज़ को बहुत ज़ोरदार होना होगा|
पर ये धमाके कब तक होंगे? अब तो ऐसा लगता है जैसे कि हमारी आत्मा दम तोड़ चुकी है| कभी दिल्ली की निर्भया, कभी कोलकत्ता की सुज़ैट जॉर्डन, तो कभी नयी साल कि शुरुआत में ही बंगलौर में हुई छेड़छाड़… कब तक?
जब सुज़ैट जॉर्डन का निधन हुआ था तब ऐसा लगा था कि डर जीत गया और दिल एक कोना टूट गया| मैं सुज़ैट से कभी नहीं मिली… बस लाखों लोगों कि तरह सत्यमेव जयते में उन्हें देखा था| पर पता नहीं क्यों उनकी छवि मन में बस गयी थी| शायद उनका आत्मविश्वास से भरा चेहरा दिल को छू गया था|
ये कविता मैं सुज़ैट व् निर्भया जैसी बहादुर औरतों को समर्पित करती हूँ| और माफ़ी माँगती हूँ उन सब ही भाईयों कि ओर से जो बुत बनकर खड़े रहे और तमाशा देखते रहे| कम से कम अब हमें ये तो पता है कि राखी की जगह हमारी अपनी कलाई पर है|
वक़्त से खफा होकर सब छोड़ती चली गयी,
इंतज़ार कि घड़ियों से मुंह मोड़ती चली गयी,
खता तो बस नज़रें न मिलाने की थी,
बदन पर लिपटे दामन को बचाने की थी,
गुहार भी लगायी थी मैंने इन्साफ कि,
चीख भी सुनाई दी थी उन्हें मेरी लाज कि,
रोका था उसे हाथ और नाखूनों से,
चाहा था दूर होना उसके स्पर्श से,
मारा घसीटा उसने भरे बाजार में,
आया न एक भाई तब बचाने मुझे,
चमड़ी नहीं ओढ़नी उतारी गयी मेरी,
हर पल हलक से साँस खींची गयी मेरी,
तमाशा लोगों ने यूँ बना दिया मेरा,
इलाज से पहले चित्र उतारा गया मेरा,
मेरे दर्द को दुनिया के सामने ज़ाहिर किया,
एक लौ से उसका प्रचार देश ने किया,
कहाँ थे वो जब मैं दर्द से बिलखती थी,
हाथ फैलाकर उनके आगे गिड़गिड़ाई थी,
बचालो मुझे बस एक बुलंद आवाज़ से,
ऐ भाइयों! दूर करो मुझे इस हैवान से,
आज दुआओं के हाथ सब उठाते हैं,
मुझे अपने उमर कि दुआ लगा के जाते हैं,
ठुकराती हूँ बुज़दिलों कि उमर को मैं,
मौत से भरी जीवन कि इस डगर को मैं,
इंतज़ार भी तो बहुत किया मैंने इन्साफ का,
मुर्दों कि बस्ती से भी मुझ पगली को आस था,
जीने की कोई तरंग मन में बची नहीं,
वक़्त से अकेले लड़ने कि ताकत नहीं,
मिल गया है मुझे नया रास्ता अपने लिए,
ख़ुदा ने भेंट किया है बादलों का आँचल मुझे…