ज़िन्दगी के लव्जों से अधूरी कहानी लिखती हूँ,
अंतर्मन की किरणों से रौशनी करती हूँ,
झंझोरा गया है मेरी आत्मा को,
फिर भी उठने की जग्दोजेहेद करती हूँ।
इस कदर कुचल दिया गया है मुझे,
भरी महफ़िल रुसवा किया गया है मुझे,
कहने को दामिनी, निर्भया कहते हैं मुझे,
पर भय से भयंकर मंजर दिखाया गया है मुझे।
यूँ तो तुम्हारी नज़र में बेटी हूँ मैं,
कभी लक्ष्मी तो कभी दुर्गा का रूप हूँ मैं,
तो इतने निर्दय कैसे हो गए तुम,
की अपनी ही माँ – बेटी को भरे बाज़ार बेच चुके हो तुम।
कभी अबला तो कभी बेचारी हूँ मैं,
डर डर के जीने वाली नारी हूँ मैं,
मेरे वस्त्रों पर मुझे टोका न करो,
इन्हें उतारने वाले तुम ही तो हो।
फूल की पंखुड़ी सी नाज़ुक हूँ मैं,
ठंडी हवन का झोंका सा हूँ मैं,
तोड़ो मसलो न मुझे, मुरझा जाउंगी मैं,
कहीं काल के अंधेरों में न डूब जाऊं मैं।
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