कहा फंस गयी हूँ,
इन रीति की कड़ियों में बंध गयी हूँ,
खुल के जीने का मन करता है,
बस कभी-कभी यूँ ही जीने का मन करता है।
रात-दिन तो मरती हूँ मैं,
फिर भी जीने की ख्वाहिश रखती हूँ मैं,
आखिर खुल के जीने का मन करता है,
बस कभी-कभी यूँ ही जीने का मन करता है।
शान्ति से मारना चाहती हूँ मैं,
बिन नफरत भरे दिल के जीना चाहती हूँ मैं,
कितना कम वक़्त है मेरे पास,
फिर भी खुल के जीने का मन करता है,
बस कभी-कभी यूँ ही जीने का मन करता है।
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