रात दिन की ये गुफ्तगू ,
कब खत्म होंगी,
ये कमबख्त मौत है की आती नहीं,
और ज़िन्दगी फिसलती जा रही है.
जैसे फूल मुरझा जाता है,
दो दिन खिलके, जीना भूल जाता है,
तो क्यों न हम जीयें ऐसे,
जैसे जिया जाता है मरने के बाद.
वक़्त गुज़र गया तो क्या,
कि जीना भी भूल गए हम,
मौत का इंतज़ार करते-करते,
अब तो मरना भी भूल गए हम.
कैसी ज़िन्दगी है ये,
कि मौत सखी तो ज़िन्दगी दुश्मन लगती है,
दुनिया लुटी है हमारी,
और अब गिला करते हैं,
कि लूटेरा अपना ही कोई था.
तो कसम है तुम्हे हमारी,
कि इस पल हमें जीने दो,
अगले पल सोचेंगे मरने का,
कि वक़्त कम है जीने के लिए.
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nice poem…..
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@akarshus Thank you! 🙂