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कश्मकश

kashmakash

kashmakashझुकी नज़रें यूँ उठीं,
क़यामत ने भी तौबा की,
टपके जो उनकी पलकों से आंसूं,
खुदा ने भी उन्हें थामने की गुस्ताखी ना की.

रातों में पलके भीगा करती हैं,
उन्हें याद करके आंसुओं में डूबा करती हैं,
कभी बीते पल मुस्कुराहट दे जाते हैं लबों पर,
तो कभी आंसूं के रूप में बह जाया करते हैं.

वो हंसीं पल भी अजीब थे,
उदासी से चुराकर खुशियां दे गए थे,
आज फिर उदासी के दर पर छोड़ गए हैं,
खुशियां ढूंढ़लो, ये कहकर कहीं तो खो गए हैं.

हाथ बढाती हूँ की शायद वो थामले,
दूूसरी ओर अपने खींचते हैं कि हमें अपना ले,
डूबती हुयी इस कश्ती को साहिल का किनारा ढूंढता है,
हर बूँद के साथ को, साहिल भी तो तरसता है.

कश्ती डूबी या नहीं, ये तो खुदा जाने,
आसुओं के समुन्दर में डूबी या उभरी, किसी कि दुआ जाने,
डूब ना जाये अब इसका डर कहा लगता है,
पर साहिल को चूमने का भी तो मैं करता है.

अगर यही है तेरी किस्मत,तो यही सही,
आंसुओं में डूबना पड़ा, तो यही सही,
खून का घूँट तो तुम हँसते-हँसते पी जाओगे,
पर अगर जीना पड़ा तो क्या जी पाओगे?

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